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सामाजिक बदलाव में द्धंद की राह पर मानवाधिकार कानून।

amritvani
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जब तेजी से सामाजिक परिवर्तन व बदलाव की बयार चल रही हो तो मौलक अधिकार व मानवा‍धिकार के संरक्षण हेतु सरकारी चिंता लाजिमी हो जाती है।इन्‍हीं प्रयासों के मद्देनजर राज्‍य मानवाधिकार आयोग की कार्यशाला में शिरकत करने का अवसर मुरादाबाद जिले में मुझे प्राप्‍त हुआ।दो दिनी इस कार्यशला में अनेक शिक्षाविद् , समाजसेवी,पुलिस विभाग के थानेदारों सहित बडे अधिकारी, जेल व प्रशासन के विद्धान लोग शामिल हुये थे।सबकी मंशा साफ थी कि हर हालात में नागरिक को सम्‍मान के साथ जीवन जीने के लिये मानवाधिकारों की जरूरत पूरी की जाय।इसमें सरकारी मशीनरी के सहयोग के साथ-साथ समाज सेवियों की भूमिका भी उतनी ही महत्‍वपूर्ण है।
एक मायने में मानवाधिकारों पर यह कार्यशाला द्धंद में उलझी नजर आयी।कार्यशाला में विमर्श का केन्‍द्र बिन्‍दु नैतिक मूल्‍यों पर बना रहा।परन्‍तु जैसा कि प्रचलन हो चला है कि नैतिकता की बात करना रूढता का प्रतीक है,इसलिये सीधे-सीधे लोग नैतिकता के घेरे से बाहर रहने का दिखावा करते हैं।हममें से हर आदमी जब अच्‍छे-बुरे के विभेद पर विचार करता है,तो इसका मतलब है कि हम कहीं न कहीं नैतिकता की ही बात करते होते हैं।हम अपने समग्र मूल्‍यों की कसौटी पर अच्‍छाई व बुराई का निर्णय करते हैं।यदि किसी देश के कानून में नैतिक मूल्‍यों को अनदेखा किया जाता है,तो वह जनता में अंसतोष पैदा करता है।समाजशास्‍त्र की भाषा में जनमानस के द्धारा निर्धारित मूल्‍यों को ‘इथोस’ कह सकते हैं।मानवाधिकार की कार्यशाला में एक प्रसिद्ध वक्‍ता व समाज शास्‍त्री विशेष गुप्‍ता का भी यही कहना था।एक दूसरे विद्धान व विधि-विशेषज्ञ श्री हरबंस दीक्षित ने भी सरल ढंग से शायराना लहजे में कह दिया कि तालीम व तहजीब ज्‍यादा मायने नहीं रखती,मायने रखती है तो आपकी ‘नीयत’ ।कानून के धारको को यह हमेशा ध्‍यान रखना चाहिये कि जब भी वे कानून का बेजां इस्‍तेमाल करेंगें तो उन अधिकारों का छिन जाना निश्चित है।आम आदमी कानून के दुरूपयोग के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद करेगा ही।ज्‍यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है है,टयूनीशिया,मिश्र,लीबिया,बहरीन इस सबके ताजा उदाहरण है।यानि कि यह सच है कि अधिकारों के दुरूपयोग में ही उनके सत्‍यानाश के बीज भी विधमान होते हैं।
आयोग का हर एक प्रतिनिधि इस बात पर जोर देता रहा कि किसी भी हाल में हमें अपने जमीर को गवाह बनाये रखना है ताकि हमारे द्धारा या हमारी नजरों के सामने भी कदाचित कोई पीडित न हो।हर आदमी खुशी व गरिमा के साथ जी सके।हमें लोंगों को आगे बढकर सहयोग करना चाहिये।न कि हम लोंगों को वंचित या पीडित करें। लेकिन आयोग अंतरराष्‍ट्रीय मूल्‍यों का हवाला देता रहा कि हमें बदले माहौल में एवं बदलते स्‍वरूप में लोंगों को सेवायें देनी हैं,जैसा कि विदेशों में होता है।आयोग के पुलिस महानिदेशक ने कहा कि हमें रात में भी परिवारों पर नजर रखने की स्थिती में आना पडेगा ताकि कोई कानून के डर से अपनी पत्‍नी या बच्‍चों को डॉट-डपट भी न पाये।अगर किसी का बच्‍चा गलत रास्‍ते पर जा रहा है तो आप चेतावनी दे दें,फिर भी न माने तो उसे घर से निकाल दें।लेकिन किसी भी कीमत पर उसके साथ जोर जबरदस्‍ती न करें।इसी तरह सगोत्र विवाह की दशा में भी प्रेमी युगल के प्रेम भाव का सम्‍मान किया जाय। चाहे खाप पंचायतें या समुदाय की नैतिकता इनके विरूद्ध हो।क्‍या इन्‍हे लोकल इथोस नहीं कह सकते।क्‍या इस मामले में जीव विज्ञान की जैनेटिक्‍स को मानना भी सही नही है।इस मामलें में आयोग मानता है कि इससे हमें कुछ भी लेना देना नहीं,हम केवल कानून को लागू करेंगें।ऐसा लग रहा है जैसे मानवाधिकार कानून लोगों के मन की इच्‍छा को लागू करना है।लोंगों को सामाजिक नियंत्रण नहीं मानना है,उन्‍हें केवल कानूनी नियंत्रण की जरूरत है।लोकतंत्र के दार्शनिक महात्‍मा गॉंधी का मानना था कि सरकारों को लोंगों के जीवन में कम से कम हस्‍तक्षेप करना चाहिये।और हमारा कानून पता नहीं कहॉं-कहॉं घुस रहा है।

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