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अंधे लोंगों का औंधा विकास

amritvani
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महाभारत में दुर्योधन को अंधे का अंधा पुत्र कह दिया गया था,कहा जाता है कि द्रोपदी से इसी कारण दुर्योधन वैमनस्‍य मानता था।जो भी हो,पूरा देश जिस विकास के रास्‍ते पर चल रहा है,ऐसा लग रहा है कि यह अंधें लोंगों का औंधा विकास है।इस समय नैतिकता की रटी हुयी उपदेशात्‍मक विश्‍लेषण की कोई जरूरत नहीं है,और न ही आदर्श मूल्‍यों के नाम पर विकास के रास्‍तों पर ब्रेकर लगाने का कोई इरादा।ब्रज भाषा में औंधे का अर्थ है ऑंख बंदकर उल्‍टा काम करना।इस प्रकार यह अंधेपन से भी एक कदम आगे की जाने वाली मूर्खता है।ग्रामीण विकास के मामले में पूरा सिस्‍टम इसी औंधेपन में उलझा हुआ है।सामाजिक सुरक्षा की योजनायें,इंदिरा आवास स्‍कीम,स्‍वच्‍छ शौचालय की ग्रामीण स्‍वच्‍छता कार्यक्रम की योजना,पेयजल कार्यक्रम,भूमि सुधार कार्यक्रम,मनरेगा,सर्व शिक्षा अभियान,मिड-डे-मील आदि ऐसी अनगिनित योजनायें हैं,जिसमें करोंडों रूपये सालाना खर्च कर दिये जा रहें हैं।लेकिन इसके रिजल्‍ट अच्‍छे नहीं निकल रहे हैं।उल्‍टे एक बार शुरू की गयी योजना के अनुश्रवण व समीक्षा पर योजना से ज्‍यादा खर्च हो रहा है।यदि बहुत करीब से इन योजनाओ व इनसे लाभान्वित होने वाले लोंगो की दशा देखें तो इन योजनाओं का खोखलापन साफ दिख जाता है।क्‍या यह सही है कि एक बार गॉंव में सीमेंटिड सडक व नाली बना देने के बाद हर घर के आगे से सरकारी सफाई कर्मी गंदगी साफ करे,लेकिन ऐसा हो रहा है।मनरेगा का खास मकसद यह है कि लोगों को अपने गॉंव में काम मिल जाय,और उनके अपने प्रयास से ग्रामीण परिसम्‍पत्तियों का स्रजन भी हो जाय।लेकिन हो रहा है इसके ठीक उलट।पैसे के बंटवारे को लेकर ही हिसाब किताब लगाया जाता रहता है।परिसम्‍पत्तियों के निमार्ण पर बहुत कम ध्‍यान दिया जा रहा है। बजट के खर्च करने पर पूरा ध्‍यान केंन्द्रित है।मजाक में गॉव वासी कहते हैं,कि अब हमारे एक बार फावडा चलाने की कीमत सौ रूपये है।सही मायने में किसान को या गरीब को मेहनताने की कीमत मिलनी ही चाहिये।लेकिन इससे गॉंव में सबसे बडी दिक्‍कत मजदूर मिलने मे आने लगी है।अब गॉंव में आसानी से मजदूर नहीं मिलते,क्‍योंकि किसान अपने खेत कराने के लिये पूरा दिन मेहनत करायेगा,तब जाकर सवासौ या ढेड सौ रूपये देगा।वो रूपये के एवज में पूरी मेहनत करायेगा,लेकिन गॉंव का प्रधान थोडी सी मेहनत व जुगत से सवासौ रूपये थमा देगा।इस तरह मनरेगा ने पूरी तरह मजदूरी की परेशानी व किसानी का संकट खडा कर दिया है। अब बात करें सर्व शिक्षा अभियान के मिड-डे-मील कार्यक्रम की,तो हम सब जानते हैं कि बच्‍चों को उपलब्‍ध कराये जाने वाला वास्‍तव में मील है क्‍या।ज्‍यादातर बच्‍चे स्‍कूल में नाम बजीफे के लिये लिखा देते हैं।स्‍कूल का टीचर भी नहीं चाहता कि उसे कोई सिरदर्द हो।इसलिये आप कभी भी किसी भी ग्रामीण स्‍कूल में जांयेगें तो रजिस्‍टर से तादाद बहुत कम दिखती है। खैर ज्‍यादा सिर क्‍यों खपाया जाय,अच्‍छा हो कि विकास के सही मायने समझे जायें।रूपये खर्च करना विकास का एकमात्र मानक नहीं है।इस तरह लोग मुफतखोर बन रहे हैं,लोग इसमें विश्‍वास करने लगें हैं कि सरकारी धन किसी भी तरह लपक लिया जाय।सरकारे रूपये खर्च करके कत्‍वर्य की इति श्री कर लेना चाहती है।ऐसा विकास औंधा विकास है,जो लोगों को उसी डाल को काटने के लिये विवश कर रहा है,जिस डाल पर उसका बसेरा है।

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