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मजबूरी का नाम महात्‍मा गॉंधी ।

amritvani
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महात्‍मा गॉंधी के पूरे दर्शन को मजबूरी का नाम देने के लिये क्षमा प्रार्थी हूं।लेकिन अयोध्‍या विवाद के इतने बडे फैसले के आने से समाज मे कोई बखेडा खडा न होने में मुझे लोगों का अहिंसा में विश्‍वास कम बल्कि मजबूरी ज्‍यादा नजर आती है।सबसे बडी मजबूरी तो निर्णय आने अगले दिन के बाद नेताओं की बयानबाजी से दिखाई देती है। समुदाय विशेष का वोट बैंक प्राप्‍त करने के लिये नेताओ की कुटिलता मौके की तलाश में है।इलेक्‍ट्रानिक मीडिया अपनी साख बढाने के लिये ऐसे नेताओं के बयानों को बार-बार दिखायेंगी।निर्णय आने के पहले से ही पुलिस प्रशासन हर घटना से निपटने के‍ लिये तैयार था ही,प्राक्रतिक बाढ ने भी लागों को संभलने का मौका नहीं दिया है।वास्‍तव में आम आदमी को अयोघ्‍या विवाद के निर्णय से कोई लेना देना नहीं है।शहरो व नगरों में काफी अधिक तादाद में पुलिस का मूमेंट लोगों में भय पैदा कर गया था।मेरे सामने ठीक उस समय जब निर्णय आ चुका था,तब एक सैलून चलाने वाले युवक ने अपनी दुकान का शटर यह कहते हुये बंद कर दिया कि अब पता नहीं कब तक दुकान बंद रखनी होगी।शायद उसे कई दिन तक कमाई न होने का डर था।इसी तरह एक रिक्‍शे वाले को पूरे दिन कोई कमाई न हाने का दुख था।ऐसे हर आदमी को दंगे या कर्फयू का ज्‍यादा डर होता है,जिसे हर रोज कमाना होता है और हर रोज उसी कमाई से अपने परिवार का पेट भरना होता है।
हम यह भी कह सकते हैं कि आधौगीकरण की गति से भी दंगों में कमी आती है।अब मँहगाई की मार ने आदमी को इतना पस्‍त कर दिया है कि वह भूलकर भी ज्‍यादा दिनों तक सामाजिक झगडों में नहीं उलझ सकता। आलू व दाल आटे का भाव उसे इस लायक नहीं छोडेगा कि वह कई दिनों तक खाने के लिये इकटठा खरीद सके।
उत्‍तर प्रदेश में पंचायत चुनाव व बिहार के चुनाव लागों का ध्‍यान डायर्वट किये हुये हैं।हालांकि अपना राजनैतिक आधार खोते जा रहे कुछ राजनैतिक दल इस निर्णय को अपने लाभ के लिये चुनावों में अपना मुददा बनाने की कोशिश करेंगें।
दो अक्‍टूबर के दिन महात्‍मा गॉधी व लाल बहादुर शास्‍त्री के चित्र पर माला पहनाते हुये हम इस भ्रम में नहीं रह सकते कि लोगों ने अहिंसा में विश्‍वास कर लिया है। जरा-जरा सी बात पर आपस में लड जाने वाले समुदाय के मन की कुंठायें मौका पाते ही रौद्र रूप ले लेती हैं।हर शहर में फिरकापरस्‍त ताकतें कुलबुला रहीं हैं।मौके की तलाश में एकजुट होकर माहौल गरमाने की कोशिश जरूर होगी।भगवान राम की क्रपा से दूसरे समुदाय के काफी अधिक लोग यह मानते ही थे कि हिन्‍दुओं के देश में जन-जन की आस्‍था के राम को उनकी जन्‍म स्‍थ्‍ाली में विराजमान होना ही चाहिये।लेकिन मजबूरी यह है कि ऐसे लोग समुदाय विशेष के ठेकेदार नहीं हैं। वो ऐसी जगह काबिज नहीं हैं,जहॉं से उनकी आवाज को लोग तबज्‍जो दे सकें। ऐसे लोगों की पहुंच मीडिया के उन कमरो तक भी नहीं है जहॉं से उनकी मंशा को आधुनिक कैमरों से टेलीकास्‍ट किया जा सके।आखिर मीडिया ऐसे आम आदमी को क्‍यों टेलीकास्‍ट करे,जो अतिंम पायदान पर खडा है।गॉंधी व शास्‍त्री इसी आम आदमी के प्रतिरूप थे।उनकी लडाई इसी आम आदमी के लिये थी।वरना ऐसे बहुत कम आदमी होगें,जो बाबर नाम के साधारण से शासक के लिये जन-जन के राम का प्रतिस्‍थापक मानने की वकालत करें।दुर्भाग्‍य से कुछ हिन्‍दू जन अपने छदम धर्मनिरपेछता की आड में ऐसे राम विरोधियों के साथ खडे दिखाई देते हैं।अब क्‍या समझें कि क्‍या ऐसा करना उनकी मजबूरी है।

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