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आज ब्लाग में मेरा कुछ भी लिखने का मन नहीं है । दन्तेवाडा में हुए नक्सली हमले में 76 जवानों की मौत मुझे स्तब्ध कर गयी है । करने को तो एक नक्सली की भी मौत या किसी हत्या में मारे गये व्यक्ति का समाचार भी मुझे चिन्तित कर देता है । लेकिन क्रूरता या आंतक की दंतेवाडा जैसी बारदातें किसी भी कीमत पर किसी को भी लाभ नहीं पहुंचा पायेंगी । आखिर जो लोग मारे गये है उनके परिवार पूरी जिन्दगी उन्ही दिक्कतों के साथ जियेंगे, जिन दिक्कतों को दूर करने का वायदा नक्सली स्थानीय लोगों से करते है । सी0आर0पी0एफ0 की रणनीति में कोई चूक हो सकती है या राज्य एवं केन्द्र सरकार में समन्वय की कमी हो सकती है । स्थानीय मुखबिरों की सूचना का अभाव हो सकता है । लेकिन किसी भी कीमत पर आपरेशन ग्रीन हंट से सैनिकों एवं नक्सलियों को कोई राहत नहीं हो सकती । अन्त में हम फिर समाधान के लिए दोनों पक्षों में वार्ता के लिए रास्तें खोजेंगे, और राजनैतिक विडम्बना देखिए कि नक्सलियों के खिलाफ लडाई से पहले ही नेताओं में मुंह की लडाई शुरू हो गयी है । ऐसा लगता है कि समस्या नक्सलियों से निपटने की बाद में है पहली प्राथमिकता राजनैतिक अंहकार की । नक्सली (माओवादी) विचारधारा बन्दूक की संस्कृति में विश्वास रखने लगी है । जबकि शुरूआत में नक्सली आन्दोलन स्थानीय भूमिपुत्रों का ऐसा आन्दोलन था जो मेहनत एवं मशक्कत के साथ अपने अधिकारों की लडाई लडना चाहता था । नक्सली आन्दोलन अपने मार्ग से कब और किसने अगवा कर लिया एवं हिंसा के मार्ग पर डाल दिया, यह सोचकर अपने अन्तिम समय में इसके जनक कानूदा भी काफी दुखी थे । मेरा मौन संदेश नक्सली नेतृत्व के लिए है एवं मौन श्रंद्धाजलि उन शहीद हुए जॉबाजों एवं उनके परिवारों के लिए ।
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