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प्रत्येक प्राणी में भूख एक ऐसी महत्वपूर्ण आवश्यकता है कि जिसके अभाव में जीवन ही सम्भव नहीं है । और यदि भरपेट भोजन न मिले तो प्राणी का सन्तुलित विकास सम्भव नहीं है । सन्तुलित और अपर्यापत भोजन के मिलने को आपको पोषण की संज्ञा दे सकते है । देश में ऐसे लोगों की संख्या लगभग 40 प्रतिशत है । अब आप कैसे उम्मीद कर सकते है कि 40 प्रतिशत खाली पेट या कुपोषित जनसंख्या किस प्रकार राष्ट्रीय विकास में योगदान दे सकती है । वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अन्तर्गत ऐसे प्रयासों की उम्मीद है कि लोग भूखें पेट न सोये, बच्चे कुपोषण का शिकार न हो । लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा बजट में 55,578 रूपये की खाद्य सब्सिडी उपलब्ध कराते हुए पिछले वार की अपेक्षा 10,24 करोड रूपये की कटौती कर दी । क्या यह मान लिया जाय कि भूखें रहने वाले लोगों की परचेजिंग पावर में कुछ वृद्धि हो गयी या सरकार ऐसे गरीबों से और अधिक मेहनत करके रोटी जुटाने की उम्मीद करती है । हम सब लोग जानते है कि कोई काम करना तो दूर, खाली पेट भजन करने में भी मन नहीं लगता । पिछले दिनों सूचना अधिकार अधिनियम के माध्यम से यह तथ्य पता चला कि 1997 से 2007 के मध्य 1.3 मिलियन टन से अधिक खाद्यान्न भण्डार गृहों में खराब हो गया । अभी अभी पंजाब राज्य में भी खुलें आसमान के नीचे 233,000 गेहूं के बोरे खराब होते देखे गये । अब यदि प्रत्येक बोरे में 50 किलों गेहूं हो तो यह मात्रा लगभग 332,857 परिवारों के लिए एक महीनें का भोजन हो सकती है । इस प्रकार पूरे भारत में सैकडों टन गेहूं कुशल प्रबन्धन के अभाव में बरबाद हो जाता है । हांलाकि गेहूं के भण्डारण एवं प्रबन्धन के लिए भारतीय खाद्य निगम केन्द्र सरकार के अधीन कार्य कर रहा है । हमारी लेटलतीफी, कथनी एवं करनी में अन्तर के कारण ही ”ग्लोबल हंगर इंडैक्स” में हमारे भारत की स्थिति 66 वें नम्बर पर है । अत: जमींनी हकीकत तो यह है कि हमारे यहॉ भूखों की संख्या लगातार बढ रही है । और हम पता नहीं किस आपाधापी में एक तरफ खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के लिए कमर कसे बैठे है वहीं दूसरी ओर खाद्य सब्सिडी में कटौती कर खाने के निबाले को ओर दूभर बनाने में लगे है ।
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