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जा तन लागे, वो तन जाने——

amritvani
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यह लाइने किसी प्रेमी की नहीं बल्कि अध्‍ययन में किये गये अनुभव की है । इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में अध्‍ययन एवं सिविल सेवा की तैयारी के दौरान कुछ ऐसा ही महसूस किया गया । आज भी अनेको छात्र अध्‍ययन एवं सरकारी सेवा में अधिकारी बनने के रोग से ग्रसित है । जिन पर ये शीर्षक की लाइनें एकदम उचित लगती है । सरकारी सेवा में आने से पूर्व निम्‍न मध्‍यम वर्गीय छात्र हाथ से खाना बनाते हुए प्रतिक्षण यह महसूस करता है कि जिन्‍दगी के हर कार्य तभी करूगा जबकि सिविल सेवा में सफल हो जाऊगा । जिस छात्र को सिविल सेवा में आने का रोग लग गया वह अन्तिम आयुसीमा तक लगे रहने में अपनी जिद एवं शान समझता है । कुछ लोग तो मात्र सफल होते है लेकिन कुछ लोग असफल होकर भी सफलता से कई गुना आगे होते है । लेकिन कुछ लोग ऐसे भी है जिन्‍हें लोक सेवा आयोग ने अन्‍धेरों में धकेल दिया है । वे उच्‍च न्‍यायालय में शरण पा जाते है ।
सफल लोगों के लिए इसके आगे का सच और भी है कि यदि वे यह समझते है कि जितनी मेहनत व ईमानदारी से अध्‍ययन करके सफलता हासिल की थी, उसी ईमानदारी व मेहनत के बल पर समाज में निर्णायक भूमिका का सम्‍पादन कर पायेंगे, तो यह गलतफहमी के सिवा कुछ नहीं होगा । असलियत यह है कि शासन व समाज आपकी भूमिका तय करेंगे, न कि आपकी लगन और योग्‍यता । शासन के उच्‍चतर स्‍तर पर यदि आप आसीन हो जाते है तो आप जो भी कहेंगे वही सच होगा यानि आप निम्‍न श्रेणी के अधिकारियों के लिए एक सामंत की तरह होंगे । निम्‍न श्रेणी के अधिकारी वास्‍तव में समाज के दलितों की तरह है जो अपने हर अधिकार के लिए सामंतों की ओर देखते है । यदि आप भी अध्‍ययन के समय पाठयक्रम के सिद्धान्‍तों का अनुशरण( जैसे समाजवाद धर्मनिरपेक्षता, बहुलवाद आदि) करते है तो समाज में कही भी रहें, सामाजिक सरंचना के महत्‍वपूर्ण अंग बने ।

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